Monday 30 December 2013

वो 18 कि.मी. का सफ़र …… !



     आकाश बार-बार घड़ी देख रहा था .......और उसके माथे की सिलवटें साफ कह रही थीं कि उसे इस तरह इंतजार करना कितना अखर रहा था । तभी बस स्टाप पर एक बस आई जिसकी तरफ लपक कर वो आगे बढ़ कर खड़ा हो गया | बस के कुछ यात्री उतरने के बाद एक वृद्ध महिला उतरी और पीछे से एक वृद्ध, जिनके हाथ में दो बैग थे, जिन्हें उन्होंने मजबूती से थामा हुआ था | बूढ़ी महिला आकाश को देख कर मुस्कुराई और बस-अड्डे से नज़र आते शहर की चमक-दमक पर नज़र दौड़ाने लगी | आकाश ने उन्हे कार की तरफ इशारा किया और आगे-आगे तेज कदम चलने लगा । वो बूढ़ी मानो पूरी ताकत खर्च कर आकाश के पीछे तेज़ क़दमों से चल पड़ी और पीछे-पीछे कान्धे पर दोनों बैग टांगे, बुजुर्ग भी उनके हमकदम होने की कोशिश करने लगे । पसीने से दोनो तरबतर हो गए, पर चमचमाती गाड़ी को देख कर, चमक उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखने लगी । 
     
     आकाश ने दरवाजा खोला और उनके बैठते ही वो ड्राईविंग सीट पर जा बैठा । दोनों बुज़ुर्ग उस गाड़ी की मखमली गद्दी का स्पर्श कर रहे थे .....बूढ़ी ने मुस्कुरा कर बुजुर्ग को देखा तो वो भी पसीने को गमछे से पोंछते हुये प्रतिउत्तर में मुस्कुरा दिये । आकाश ने गाड़ी को ज्यूँ हीं रफ्तार दी, उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ-जा रहे थे ....कभी नाक सिकुड़ती, कभी भवें तेज कमान सी हो जातीं, ज़रा भी ट्रेफिक को देख कर । वहीं पीछे बैठी बूढ़ी लगातार बोले चली जा रही थी । कभी सफर का किस्सा बयाँ करती तो कभी कहती :- “इस पे बैठो तो खटिया याद आ रही है ।“ बूढ़ा बुजुर्ग वो खुरदुरी खटिया और उस मखमली सीट की असमानताओं को सोच कर मुस्कुरा रहा था । बूढ़ी थक ही नहीं रही थी, बोलते-बोलते और उधर आकाश …ट्रैफिक सिगनल पर रुकते ही, गाड़ी से बाहर चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखता और अजीब सा मुँह बनाता ।

     देखते ही देखते कई सिग्नल और 18 कि.मी. का सफर खत्म हुआ । गाड़ी में तीन सवारी थीं, पर सिर्फ वो बूढ़ी ही थी, जो लगातार बोले जा रही थी, पिछले 18 कि मी के इस सफर में बाकी दोनों लोग मूक-बधिर से बैठे रहे | बूजुर्ग का पसीना तो सूख गया था, एसी गाडी में बैठते ही, और अब ठंडा सा हो रहा था जिस्म उसका । कभी वो आकाश को देखता, कभी बूढ़ी और फिर उस गाड़ी की अन्दरुनी चमक- दमक को । आटोमेटिक ऊपर-नीचे होते शीशे, हैंडिल पर लगे साफ़्ट-पैड और गाड़ी के डैश-बोर्ड पर रखे महँगे सिगरेट के पैकट और लाईटर को देख, अपने खीसे में रखी बीड़ी के पैकट और चाभी छाप माचिस की डिब्बियों को टटोलता । उन दोनों के मन में तीव्रता से कई भाव उत्पन्न हो रहे थे, जिन से अनभिज्ञ बूढ़ी बस बोले जा रही थी । उसके मन में छुपी बातों पर जैसे कोई विराम या ट्रेफिक सिंगनल था ही नही और प्रतिउत्तर को भी नही खोज रही थी कि सिग्नल हरा है या लाल .....बस बेकाबू रफ्तार लिये उसकी बातों की गाड़ी दौड़े ही जा रही थी । 
     आकाश ने गाड़ी में ब्रेक लगाया और घर के किनारे गाड़ी पार्क करने के पहले अपने मौन को तोड़ते  हुये बोला :- “माँ ! कब का रिजर्वेशन है आप लोगों का ?” बूढ़ी सुनते ही मुस्कुराई और बूजुर्ग की तरफ देखने लगी .......वो उन्हे देख कर मुस्कुरा दिये । फिर आकाश बोला :- “मेरा मतलब है कि यदि नही है .......तो मैं करवा दूँ ....कब जाओगी ?” आज शायद बूढ़ी, उसकी आवाज चार बरस बाद सुन रही थी । विदेश जाने के बाद वहीं शादी भी हुई और फिर बातें यदा-कदा होती भी थी तो वो भी खत्म हो गई थीं ।  उनको लगा था कि बच्चा ये कह रहा है कि खूब बातें करेंगे .....जाने की कोई जल्दी नही ! पर इधर तो उसने जो पूछा कि बस वो चकित रह गई । उसकी खिली मुस्कान, झेंप की मुद्रा में आई, जिसे बूजुर्ग ने पहचानते हुये, उसके कान्धे पर हाथ रखा और अपना भी मौन तोड़ते हुये कहा :- “लल्ला ! यही बंगला है का तेरा ? यहीं उतरना है हमको ?” आकाश को मनचाहा उत्तर नही मिला तो प्रश्न के जवाब में उसने बेमन से सिर हिलाया और उतर के दरवाजा खोल दिया । 
     
     उतरते ही बुजुर्ग ने बैग उतार कर जमीन पर रखे और गमछे से सीट साफ करी । आकाश को कुछ समझ नही आ रहा था ......वो चुपचाप खड़ा कभी कॉलोनी के दूसरे घरों को देखता और कभी सिकुड़न  से भरी माँ की साड़ी को । अपने पिता का मैला सा और पीला पड़ा कुर्ता, जो कभी शायद सफेद हुआ करता होगा .....उसे भी देखा उसने । उसे लगा कि उसे देखते हुये उसके बुजुर्ग पिता ने नही देखा किंतु वो उसे देख रहे थे कि क्या बात उसे परेशान कर रही है । वो और कुछ बोलने को हुआ कि तभी बुजुर्ग ने उधर से जाती एक टैक्सी को आवाज दे कर रोका | आकाश की समझ में कुछ नही आया । 
     
     टैक्सी की तरफ बढ़ते हुये वो बूढ़ी से कहने लगे :- “देख ले तेरे लल्ला का बडा बंगला !.. और ये बड़ी गाड़ी .. नजर भर देख ले.. !”  फिर टैक्सी में बैठते ही जेब को टटोल कर एक पाँच सौ का नोट निकाल कर बुजुर्ग ने आकाश को दिया और कहा :- “ले बेटा ! गाड़ी गन्दी हो गई होगी तेरी .... धुलवा लेना ...! खुश रहना .. हमें तो बस अपनी मेहनत की चमक देखनी थी .....वो हमने देख ली ।“  
    
     प्रश्न-चिन्ह लिये बूढ़ी अब मौन थी.. और पास रखे बैग को टटोल-टटोल के महसूस कर रही थी । कुछ देर बुजुर्ग शांत बैठे रहे, फिर उसकी नम आँखों को देख कर बोले :- “हमारी दुनिया वही खटिया है, जिस पर रात-रात करवटों में जाग कर ....हमने उस मखमली जीवन के सपने खुद देखे और बच्चे को दिखाये । लेकिन अब वो हमसे जीवन भर के लिए दूर है... तुम्हारी मीठी बोली में रस बरस-बरस के  फूट रहा था स्नेह और प्रेम का ......वहीं लल्ला की गहरी खामोशी बता रही थी कि उसे हमारा यूँ आना जरा भी अच्छा नही लगा .....शायद के बहू को पसंद ना हो या फिर ....!” कुछ क्षणों तक चुप रह कर फिर बुजूर्ग बोले :- “खैर..! जो भी है .. अच्छा है.. खुश रहे वो .. हमारे लिये इतना ही काफी है कि हमारी मेहनत से हमारी बगिया में फूल खिला हैं ......माली को फूलों की खुशबू मिले ....ये जरुरी तो नही !” बूढ़ी अश्रुपूरित नयन लिए, सिर हिलाकर मौन सहमति दे रही थी  ………और 18 किमी का सफर पूरा हुआ । 



                                                          कथा एवं रेखाचित्र : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास' 




                                                                  


Monday 16 December 2013

आखिर क्यों …… क्यों ?????



       जाड़े की सर्द रात और साथ में तेज़ शीत हवायें .....।  घर के सामने की सड़क के उस पार कपास और यूकेलिपटस के पेड़ों की बीच में बनी झोपड़ी से आती अजीब सी ठक-ठक की आवाजें …तेज़ हवाओं की सरसराहट से मिलकर, भयावह माहौल बना रही थीं । डरते-सहमते, खिड़की के शीशों से नज़र आती झोपड़ी की तरफ देखकर सोने का प्रयास कर रहा था मैं । 
देर रात, सपनें में डर से काँपा तो माँ ने साँई की विभूती माथे पर लगा दी । सुबह सब भूल गया, पर स्कूल जाते समय फिर मेरी नजर उस झोपड़ी पर टिक गयी । 

      कमान सी टेढ़ी कमर, भूरी-भूरी आँखें और  झुर्रीदार चेहरे वाली बूढ़ी काकी उसी झोपड़ी में अकेले रहती थी, जो उस समय झाड़ू लगा रही थी और हम लोगों को लगभग घूरती नजर से बीच-बीच में देखे जा रही थी | जब साथ चल रहे दोस्तों से उसके बारे में पूछा तो उन्होने कहा- “सब कहते हैं .... उधर वो चुड़ैल …रात में एक बच्चे का सिर कूटती है......और कोई जादू-टोना और काला जादू भी करती है !” सुनते ही मै डर साथ ले कर स्कूल गया और जब लौटा तो नजर फिर उस झोपडी पर पड़ी ।  

      रात गये फिर उसी डर के साथ सोया । जब रात में नींद में कोई डरावना सपना देख कर काँपने लगा तो माँ ने झिंझोड़ के उठाया और पूछा :- "का हुआ ....काहे डर रहा है.. ?” मैने सहमते हुये उंगली उठा उस झोपड़ी की तरफ इशारा किया, फिर माँ हँसी और बोली :- "अरे ! वो बनारसी काकी का घर है, वैद्य जी के भगवान के पास जाने के बाद जब कभी अपने अकेलेपन से ऊब जाती है तो दवा बनाने लगती है, हम सभी के लिये ……और वही तो तू भी खाता है शहद के साथ ! जिससे कि मेरे लाडले को सर्दी नहीं लगती है !” मैं भी सुन कर मुस्कुराया और माँ के पेट पर हाथ रख कर मीठी नींद सो गया । 

      सुबह जब उठा तो बगीचे से निर्भीक होकर झोपड़ी की तरफ देखा और स्कूल जाते वक्त रात की पूरी मिठास होंठों पर चिपका के मन्द-मन्द मुस्कुरा दिया काकी को देख कर ! वो अचम्भित हो कर देखने लगी और ज्यूँ ही वो मुस्कुराई .. उनके पोपले गाल और खिलखिलाती हुई सी झुर्रियाँ मुझे अब तक हर्षाती हैं । 

      डर तो मेरा उस दिन खत्म हो गया पर एक प्रश्न साथ मेरे बड़ा हुआ .. क्योँ किसी की वेदना समझे बिना, संवेदनहीन होकर मनगढ़ंत कहानियाँ बना दी जाती हैं ? 
क्यों ???? 





                                                 लघु-कथा व रेखा-चित्र : अनुराग त्रिवेदी ‘एहसास’



Sunday 15 December 2013

सफेद चादर में सो जाती है !




नारी के कोमल मन में कितनी ही बातें दब जाती है 
वो नही कह पाती कभी किसी से, बस उसे छुपाती है 

विडम्बना है, कि कैसे वो सुख-दुःख का इजहार करे !
अपनी पीड़ा छिपाने को, खुद गठरी बन सो जाती है 

शिशु रुप ले लेती है ....जब घुटने छाती से लगते ! 
बच्चे के पेट को छूते ही सजग हो माँ जाग जाती है  

अपनी परेशानी उसके लिये महत्व कभी ना रखती, 
परिवार के लिये खुद को भुलाती, खो सी जाती है

जिन पर वारा उसने सब कुछ …वो उसे भूल बैठे 
उस वक्त उसकी सम्वेदनायें शिथिल हो जाती हैं  

प्राण-हीन जीवन रह जाता और वो सहती रहती ! 
फिर अनकही वेदना ले, सफेद चादर में सो जाती है





                                                        चित्रांकन गूगल से साभार