Wednesday 14 August 2013

कहानी : मासूम सवाल

          


          हर मौसम की अपनी महत्ता होने के साथ-साथ मार भी होती है, जो सबको बर्दाश्त करनी होती है .........विशेषकर बुजुर्गों को । शीत ऋतु में खिली, नर्म सी धूप की गर्म सेंक का लालच ले, हर जीव धूप को तकता है और अवसर मिलते ही उसका भरपूर आनन्द लेता है । वहीं बुज़ुर्ग के लिये शीत ऋतु उसकी पसलियों से लेकर शरीर के हर अंग में दर्द भर देती है और उसके लिए धूप, महज आनंददायिनी ना होकर औषधि का काम भी करती है । ऐसे ही एक घने बसे मोहल्ले में, धूप .............. सुबह से थोड़ा-थोड़ा सरकती है और दोपहर के बाद, सड़क के दूसरे कोने पर जा ठहरती है । रोज एक बूढी अम्मा जो कि, सड़क के इस पार रहती है, लगातार धूप का पीछा करने के जतन में सड़क के उस पार जाने का भी प्रयास करती । आते-जाते को ताकती ....कि कोई रुक कर उसे उस पार तक पँहुचा दे, किंतु अपनी व्यस्तता में सब भागे चले जाते ।
          
         एक दिन ऐसे ही .........वो कदम आगे बढ़ाती और फिर पीछे कर लेती । तभी स्कूल से घर के लिये जाती, एक बच्ची उस बूढ़ी अम्मा को देख रुक जाती है । पहले तो समझने की कोशिश करती रही ....कि वो चाहती क्या है ? आगे बढ़ के पीछे कदम क्यूँ ले लेती है ? ऐसा सोच कर पास आई, तब उसने देखा कि आते-जाते रिक्शे और गाड़ियों के चलते वो आगे नही बढ पा रही है । वो पास जाती है और बूढ़ी अम्मा का हाथ थाम लेती है । बूढ़ी अम्मा उसे देख कर मुस्कुराती है और उसके माथे पर हाथ फेर पूछती है :- "क्या नाम है तुम्हारा ?
बच्ची :- "सुधा..!"
मासूम सी मीठी आवाज़ सुन अम्मा मुस्करा के पूछती है :- किस कक्षा में पढती हो ?" जवाब में वो बोलती है :- "पांचवीं कक्षा में ।" इतना कह, वो अम्मा को उस पार छोड़ अपने घर को निकल  जाती है ।
          
         फिर यही सिलसिला दोनों के बीच चलता रहा, दिनों-दिन तक । दूर से आती सुधा, अम्मा की देहरी पे ताकती कि अम्मा बैठी है क्या ? और उधर से अम्मा भी निहारती कि सुधा आती होगी । छुट्टियों के दिन भी सुधा बिन नागा किये अपनी सहेलियों संग आती और दादी को दूसरे कोने में छोड़ थोड़ी देर उनसे बतियाती और सहेलियों के संग वापस चली जाती ।
          
         दो अनजानों में अजीब सा एक आस का रिश्ता सा बन गया था । दोनों ही एक दूजे को दूर से ही देख, मुस्कुराती और फिर बहुत देर तक बतियातीं । बाकी लोग अपने ही कामों की दौड़-भाग में व्यस्त ..........एक वही बच्ची उस बूढी के मर्म को पढ़ पाती । कभी उनसे कहानियाँ सुनती ...और कभी सुनाती ।
          
         ऐसे ही दो महीने बीत गए । एक दिन रोज़ की तरह, सुधा दूर से देखती आ रही थी अम्मा को, लेकिन वो उसे दिखाई नहीं दे रही थी । उनके खंडहर से मकान के बाहर खड़ी देर तक सोचती रही ..........जाउँ कि नही ? हिम्मत ही नही जुटा पाई, अन्दर जाने की । दो दिन बीत गये, अम्मा उसे नहीं दिखी । दिन-दिन भर चिंता में रहती । फिर आखिरकार मन बना कर उस मकान में घुस ही गयी । सहमे-सहमे से हलके कदम आगे रखती जाती और ...... अम्मा ......अम्मा ! पुकारती जाती लेकिन बहुत अन्दर जाने तक उसे कोई नही दिखा । फिर घर के आखिरी तहखाने नुमा, एक छोटे से कमरे से उसे आवाजें सुनाई दी .......कराहने की । वो डरी-सहमी, आगे-पीछे देखती, उधर पंहुची ...तो अन्दर कमरे में जर्जर सी चारपाई में पड़ी बूढी अम्मा को कराहते देख, वो बेचैन हो उठी :- "अम्मा ! क्या हुआ ?" 
बूढी अम्मा उसे उधर देख, दर्द में भी मुस्कुरा के बोल पड़ी :- "कुछ नही रे.. बूढ़ा शरीर है.. बस वही.. !" 
सुधा की भँवे तन गयी और बोली :- "सच बोलो अम्मा .....! का हुआ ?" 
बूढ़ी अम्मा उसके हाथ पे हाथ रख बोली :- "पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे, मुझ लाचार के भाग फूटे ..... जो सामने आ गई, बस धक्का लगा और कूल्हे में अंदरूनी चोट आ गई । उठना तो दूर, हिल भी नही सकती ।" 
सुधा ने कमरे के अन्दर नज़र दौड़ाई तो उधर गिनती के कुछ सामान .........जो फैले हुए पड़े थे । उसने उनकी जरुरत के सामान, उनके पास रखे और पूछा :- "अम्मा .....! क्या तुमाई देख्र-रेख करवे के लाने कोई नही है का ?" 
अम्मा उसके चेहरे पर चिंता के भाव देख, फिर मुस्कुराई और प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरती हुई बोली :- "पगली ! तू है ना ?" 
सुधा कमउम्र में भी समझ रखती थी, चाहती थी कि जिस विषय पर सवाल पूछा जवाब वही मिले ........उसने बनावटी गुस्से में फिर पूछा :- "मैं जो पूछ रही हूँ ......वो बताओ ?" 
अम्मा ने दीवाल की तरफ सिर घुमा कर इशारा किया, उधर टंगी दो तस्वीरों की ओर ........। 
सुधा देखने लगी, दोनो तस्वीरें .....दो नौजवानों की ...दोनों फौज की वर्दी पहने हुये । 
अम्मा बोली :- "एक को बीमारी ने चपेट में ले लिया ...... दूसरे को सीमा की रक्षा करते समय शहादत मिली ।" 
सुधा :- "शहादत .....! मतलब ?" 
अम्मा दर्द की लहर को चेहरे पे नही आने दे रही थी......पर अब जब सुधा ने उनके जज़्बाती दर्द को अनजाने में छेड़ दिया तो उसके झुर्रीदार चेहरे में दर्द की लकीरें सी आ गईं पर रुंधी सी आवाज़ के कम्पन पर भरसक काबू करते हुए, अम्मा ने सहजता से बताया :- "बच्ची..! शहादत उसे कहते हैं .. जब बच्चे अपनी मातृ-भूमि के लिये हँसते-हँसते जान दे देते हैं ।" 
सुधा को बात कितनी समझ आई, वो उसका भोला चेहरा बता रहा था पर एक ठंडी आह सी भरती हुई आवाज में उसने कहा :- "अच्छा !"
          
          अम्मा की सारी जरुरत की चीजें उनके पास रख वो घर चली गई  ...........घर जा कर कई बार अम्मा के बारे में बताने का उसका मन हुआ .....पर बोली नही । जाने क्या था .........जो उसे रोक लेता था ? अपनी मासूम सी समझदारी में शायद उसके मन में ये बात थी कि बता देने से, ऐसा ना हो कि, जो मदद अभी कर पा रही है वो अम्मा की, फिर कहीं वो भी ना कर पाये ! अम्मा के बारे में ही सोचती और मन ही मन एक सवाल उसे कुरेदता कि शहादत हुई भी तो उसी अम्मा के यहाँ क्यूँ ? वो इतनी बीमार हैं और उनका कोई भी नहीं ........! क्या भगवान को ये सब नहीं दिखता
उसने अपने बाबा से पूछा :- "बाबा ! शहादत वो होती है ना, जब कोई मातृभूमि के लिये मर जाता है !" 
बाबा हल्के डाँटने की सी आवाज में बोले :- "मर जाता नही बेटा .......! शहीद होता है........ऐसा बोलते हैं । वो देश के लिये जीते और देश के लिये खुशी-खुशी जान दे देते हैं ।" 
सुधा :- "अच्छा .... और ये देश उसे क्या देता है ?" 
बाबा :- "समझा नही .....मतलब ?" 
सुधा ने सवाल को फौरन बदला :- "अच्छा ये बताईये, क्या हमारे मुहल्ले में कोई ऐसा है .......जो शहीद हुआ..?" 
बाबा :- "हाँ .. पुराने बरगद के पेड़ के सामने जो घर है.. उधर एक माता जी हैं, उनका ............।" उन्हें बीच में ही रोककर सुधा बोल पड़ी :- "अच्छा वो बूढ़ी अम्मा ! जिसे सड़क पार करनी होती है, तो कोई ठिठक के रुकता भी नही ! वही हैं क्या ?" 
बाबा :- "नही रुकता..! मतलब ?" फिर उसने जवाब दिया :- "कुछ नही..!"
          
          रात के खाने के समय, सुधा खाते-खाते अपनी थाली से खाना उठा के पीछे छिपाए एक डिब्बें में रखने लगी और फिर झूठ-मूठ ही मुँह साफ करके अपनी माँ से बोली :- "वाह .....माँ ! आज का खाना बहुत अच्छा था ।"

          देर रात सबके सोते ही उसने मौका देख खिड़की से छलाँग मारी और दबे पैर बाहर निकल गई । रात कितनी हो गयी ......उसे होश ही नही था और पहली बार शायद इतनी गहरी और सन्नाटेदार रात देख, उसके पैर उठ ही नही पा रहे थे । कुत्तों के भौंकने  की आवाजें, झिंगुर के सप्तम सुर और बीच-बीच में हवाओं से झाड़ियों के हिलने की डरावनी आवाज । सहम-सहम कर चलती जाती और डर कर पीछे देखती तो उसे अपना साया ही भूतिया लग रहा था । डरते-सहमते, आखिर वो बूढी अम्मा के दरवाज़े पर  जा खड़ी हुई । सामने खड़े बरगद के पेड़ को देख शीत की ठंडी रात में भी उसे तेज पसीना आ गया ।
          
          घर से अम्मा के कराहने की आवाज़ें आ रही थी । तभी सुधा के पैरों की आवाज सुन, बूढ़ी अम्मा पूछने लगी :- "कौन है रे... कौन है उधर !" डरी-सहमी हुई सुधा ने अम्मा की आवाज़ सुन कर तेज चलती साँसों को सँभालते हुए जवाब दिया :- "अम्मा ......मैं हूँ सुधा..! "अम्मा :- "अरे.. सुधा ! इतनी रात को .. ?" अम्मा उठने की कोशिश करने लगी तो दौड़ती हुई सुधा आई और बोली :- "अरे ! उठो नही.. खाना लाई हूँ .. चुपके से !" उसने खाने को जल्दी-जल्दी थाली में कर, उसके पास रखा और बोला :- "अम्मा ! रात नही होती तो खिला के जाती, ….पर !" अपनी बेबसी पर जिधर वो मायूस हो रही थी, वहीं अम्मा की आँखें भर आईं और उसने पास बुला के, लेटे-लेटे उसका माथा चूमा  और बोली :- "शायद यही देखने के लिये मैं अब तक जिन्दा थी....... तुझे मेरी उमर लग जाये ......जा बिटिया ...।" इतना कह कर उसकी आँखें झरने सी फूट पड़ी । सुधा ने अपने कोमल हाथों से उसके गालों पर आये आसूँओं को पोछा, फिर कहा :- "मैं अभी जाती हूँ .....सुबह आउंगी..!"
          
          टकटकी लगाकर, अम्मा उसे जाते हुए देखती रही । उसके पास, मासूम सुधा का दिया, कोमल स्पर्श और अपनत्व का एहसास था, जिसकी अनुभूतियों से उसकी आँखें बरबस ही बरसे जा रही थीं । ढेर सारे शिकवे थे, उसके मन में, लोगों के लिए ....... जो आज उस कोमल स्पर्श से मिट गये थे ।

          उधर बाहर निकल कर सुधा को भी अब उतना डर नही था । घर के बाहर उसने बस एक बार, बरगद के पेड़ को देखा ........जो भयावह आकृति लिये हुए था । आधी आँख बन्द कर उसने तेज दौड़ लगा दी, जो घर पर आकर ही रुकी । फिर धीरे से वो अपने कमरे में गयी और तकिया चादर के नीचे से हटाकर, अपनी माँ के बगल में आकर सो गई ।
          
          चिडियों की चहक और मोगरे की महक के साथ सुबह ने, सुधा की खिड़की पर आ कर दस्तक दी । खिड़की खुलते ही चेहरे पर पड़ती, हल्की मीठी धूप से ही उसे बूढ़ी अम्मा का ख्याल आया । बिन मुँह-हाथ धोये ही वो दौड़ कर बूढी अम्मा के घर गई । उनके दरवाजे पर रुकी और आवाजें देती हुई अन्दर गई ।उसने कई आवाजें दीं .....पर कोई जवाब ना आने पर, वो बैचेन हुई । सोचने लगी, आज तो कराहने की आवाजें भी नही आ रही । उसके कदमों की चाल तेज़ हो गयी और जैसे ही उसने कोठरी खोली, देखा ...... उधर खाने के बर्तन जस के तस पड़े और बूढ़ी अम्मा.... गिरी पड़ी थीं, जमीन पर .........हाथ में तस्वीर लिए हुए, उनके बेटे की । सुधा तेजी से पास आई । उस अबोध को बहुत देर लगी समझने में कि अब बूढ़ी अम्मा ने त्याग दिया है वो शरीर, जिसे पकड़ के वो हिला रही है और सहारा देना चाह रही है ।  वो रोने लगी चीख-चीख कर, पर उस खंडहर से पड़े घर की आवाजें, मोहल्ले वाले अनसुना करते रहे, हमेशा की तरह ...........।

          बहुत देर वहीं अम्मा के पास बैठी सुधा रोती रही । फिर उसे ढूंढने निकले उसके बाबा को जब उसके रोने की आवाज़ आई तो वो उधर पंहुचे और तब उनके पीछे-पीछे और भी मोहल्ले वाले आए । बाबा ने अंतिम-संस्कार का इंतजाम किया और फिर जब अंतिम संस्कार के बाद सब अम्मा के घर आये तो उधर बाहर ही खड़ी, सुबक-सुबक कर रोती सुधा के हाथ में, अम्मा के परिवार की तस्वीरें देख सभी लज्जित हो, सिर झुका के खड़े हो गये ।

                                                           
                         चित्रांकन व कथा : अनुराग त्रिवेदी ….'एहसास'