Monday 30 December 2013

वो 18 कि.मी. का सफ़र …… !



     आकाश बार-बार घड़ी देख रहा था .......और उसके माथे की सिलवटें साफ कह रही थीं कि उसे इस तरह इंतजार करना कितना अखर रहा था । तभी बस स्टाप पर एक बस आई जिसकी तरफ लपक कर वो आगे बढ़ कर खड़ा हो गया | बस के कुछ यात्री उतरने के बाद एक वृद्ध महिला उतरी और पीछे से एक वृद्ध, जिनके हाथ में दो बैग थे, जिन्हें उन्होंने मजबूती से थामा हुआ था | बूढ़ी महिला आकाश को देख कर मुस्कुराई और बस-अड्डे से नज़र आते शहर की चमक-दमक पर नज़र दौड़ाने लगी | आकाश ने उन्हे कार की तरफ इशारा किया और आगे-आगे तेज कदम चलने लगा । वो बूढ़ी मानो पूरी ताकत खर्च कर आकाश के पीछे तेज़ क़दमों से चल पड़ी और पीछे-पीछे कान्धे पर दोनों बैग टांगे, बुजुर्ग भी उनके हमकदम होने की कोशिश करने लगे । पसीने से दोनो तरबतर हो गए, पर चमचमाती गाड़ी को देख कर, चमक उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखने लगी । 
     
     आकाश ने दरवाजा खोला और उनके बैठते ही वो ड्राईविंग सीट पर जा बैठा । दोनों बुज़ुर्ग उस गाड़ी की मखमली गद्दी का स्पर्श कर रहे थे .....बूढ़ी ने मुस्कुरा कर बुजुर्ग को देखा तो वो भी पसीने को गमछे से पोंछते हुये प्रतिउत्तर में मुस्कुरा दिये । आकाश ने गाड़ी को ज्यूँ हीं रफ्तार दी, उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ-जा रहे थे ....कभी नाक सिकुड़ती, कभी भवें तेज कमान सी हो जातीं, ज़रा भी ट्रेफिक को देख कर । वहीं पीछे बैठी बूढ़ी लगातार बोले चली जा रही थी । कभी सफर का किस्सा बयाँ करती तो कभी कहती :- “इस पे बैठो तो खटिया याद आ रही है ।“ बूढ़ा बुजुर्ग वो खुरदुरी खटिया और उस मखमली सीट की असमानताओं को सोच कर मुस्कुरा रहा था । बूढ़ी थक ही नहीं रही थी, बोलते-बोलते और उधर आकाश …ट्रैफिक सिगनल पर रुकते ही, गाड़ी से बाहर चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखता और अजीब सा मुँह बनाता ।

     देखते ही देखते कई सिग्नल और 18 कि.मी. का सफर खत्म हुआ । गाड़ी में तीन सवारी थीं, पर सिर्फ वो बूढ़ी ही थी, जो लगातार बोले जा रही थी, पिछले 18 कि मी के इस सफर में बाकी दोनों लोग मूक-बधिर से बैठे रहे | बूजुर्ग का पसीना तो सूख गया था, एसी गाडी में बैठते ही, और अब ठंडा सा हो रहा था जिस्म उसका । कभी वो आकाश को देखता, कभी बूढ़ी और फिर उस गाड़ी की अन्दरुनी चमक- दमक को । आटोमेटिक ऊपर-नीचे होते शीशे, हैंडिल पर लगे साफ़्ट-पैड और गाड़ी के डैश-बोर्ड पर रखे महँगे सिगरेट के पैकट और लाईटर को देख, अपने खीसे में रखी बीड़ी के पैकट और चाभी छाप माचिस की डिब्बियों को टटोलता । उन दोनों के मन में तीव्रता से कई भाव उत्पन्न हो रहे थे, जिन से अनभिज्ञ बूढ़ी बस बोले जा रही थी । उसके मन में छुपी बातों पर जैसे कोई विराम या ट्रेफिक सिंगनल था ही नही और प्रतिउत्तर को भी नही खोज रही थी कि सिग्नल हरा है या लाल .....बस बेकाबू रफ्तार लिये उसकी बातों की गाड़ी दौड़े ही जा रही थी । 
     आकाश ने गाड़ी में ब्रेक लगाया और घर के किनारे गाड़ी पार्क करने के पहले अपने मौन को तोड़ते  हुये बोला :- “माँ ! कब का रिजर्वेशन है आप लोगों का ?” बूढ़ी सुनते ही मुस्कुराई और बूजुर्ग की तरफ देखने लगी .......वो उन्हे देख कर मुस्कुरा दिये । फिर आकाश बोला :- “मेरा मतलब है कि यदि नही है .......तो मैं करवा दूँ ....कब जाओगी ?” आज शायद बूढ़ी, उसकी आवाज चार बरस बाद सुन रही थी । विदेश जाने के बाद वहीं शादी भी हुई और फिर बातें यदा-कदा होती भी थी तो वो भी खत्म हो गई थीं ।  उनको लगा था कि बच्चा ये कह रहा है कि खूब बातें करेंगे .....जाने की कोई जल्दी नही ! पर इधर तो उसने जो पूछा कि बस वो चकित रह गई । उसकी खिली मुस्कान, झेंप की मुद्रा में आई, जिसे बूजुर्ग ने पहचानते हुये, उसके कान्धे पर हाथ रखा और अपना भी मौन तोड़ते हुये कहा :- “लल्ला ! यही बंगला है का तेरा ? यहीं उतरना है हमको ?” आकाश को मनचाहा उत्तर नही मिला तो प्रश्न के जवाब में उसने बेमन से सिर हिलाया और उतर के दरवाजा खोल दिया । 
     
     उतरते ही बुजुर्ग ने बैग उतार कर जमीन पर रखे और गमछे से सीट साफ करी । आकाश को कुछ समझ नही आ रहा था ......वो चुपचाप खड़ा कभी कॉलोनी के दूसरे घरों को देखता और कभी सिकुड़न  से भरी माँ की साड़ी को । अपने पिता का मैला सा और पीला पड़ा कुर्ता, जो कभी शायद सफेद हुआ करता होगा .....उसे भी देखा उसने । उसे लगा कि उसे देखते हुये उसके बुजुर्ग पिता ने नही देखा किंतु वो उसे देख रहे थे कि क्या बात उसे परेशान कर रही है । वो और कुछ बोलने को हुआ कि तभी बुजुर्ग ने उधर से जाती एक टैक्सी को आवाज दे कर रोका | आकाश की समझ में कुछ नही आया । 
     
     टैक्सी की तरफ बढ़ते हुये वो बूढ़ी से कहने लगे :- “देख ले तेरे लल्ला का बडा बंगला !.. और ये बड़ी गाड़ी .. नजर भर देख ले.. !”  फिर टैक्सी में बैठते ही जेब को टटोल कर एक पाँच सौ का नोट निकाल कर बुजुर्ग ने आकाश को दिया और कहा :- “ले बेटा ! गाड़ी गन्दी हो गई होगी तेरी .... धुलवा लेना ...! खुश रहना .. हमें तो बस अपनी मेहनत की चमक देखनी थी .....वो हमने देख ली ।“  
    
     प्रश्न-चिन्ह लिये बूढ़ी अब मौन थी.. और पास रखे बैग को टटोल-टटोल के महसूस कर रही थी । कुछ देर बुजुर्ग शांत बैठे रहे, फिर उसकी नम आँखों को देख कर बोले :- “हमारी दुनिया वही खटिया है, जिस पर रात-रात करवटों में जाग कर ....हमने उस मखमली जीवन के सपने खुद देखे और बच्चे को दिखाये । लेकिन अब वो हमसे जीवन भर के लिए दूर है... तुम्हारी मीठी बोली में रस बरस-बरस के  फूट रहा था स्नेह और प्रेम का ......वहीं लल्ला की गहरी खामोशी बता रही थी कि उसे हमारा यूँ आना जरा भी अच्छा नही लगा .....शायद के बहू को पसंद ना हो या फिर ....!” कुछ क्षणों तक चुप रह कर फिर बुजूर्ग बोले :- “खैर..! जो भी है .. अच्छा है.. खुश रहे वो .. हमारे लिये इतना ही काफी है कि हमारी मेहनत से हमारी बगिया में फूल खिला हैं ......माली को फूलों की खुशबू मिले ....ये जरुरी तो नही !” बूढ़ी अश्रुपूरित नयन लिए, सिर हिलाकर मौन सहमति दे रही थी  ………और 18 किमी का सफर पूरा हुआ । 



                                                          कथा एवं रेखाचित्र : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास' 




                                                                  


Monday 16 December 2013

आखिर क्यों …… क्यों ?????



       जाड़े की सर्द रात और साथ में तेज़ शीत हवायें .....।  घर के सामने की सड़क के उस पार कपास और यूकेलिपटस के पेड़ों की बीच में बनी झोपड़ी से आती अजीब सी ठक-ठक की आवाजें …तेज़ हवाओं की सरसराहट से मिलकर, भयावह माहौल बना रही थीं । डरते-सहमते, खिड़की के शीशों से नज़र आती झोपड़ी की तरफ देखकर सोने का प्रयास कर रहा था मैं । 
देर रात, सपनें में डर से काँपा तो माँ ने साँई की विभूती माथे पर लगा दी । सुबह सब भूल गया, पर स्कूल जाते समय फिर मेरी नजर उस झोपड़ी पर टिक गयी । 

      कमान सी टेढ़ी कमर, भूरी-भूरी आँखें और  झुर्रीदार चेहरे वाली बूढ़ी काकी उसी झोपड़ी में अकेले रहती थी, जो उस समय झाड़ू लगा रही थी और हम लोगों को लगभग घूरती नजर से बीच-बीच में देखे जा रही थी | जब साथ चल रहे दोस्तों से उसके बारे में पूछा तो उन्होने कहा- “सब कहते हैं .... उधर वो चुड़ैल …रात में एक बच्चे का सिर कूटती है......और कोई जादू-टोना और काला जादू भी करती है !” सुनते ही मै डर साथ ले कर स्कूल गया और जब लौटा तो नजर फिर उस झोपडी पर पड़ी ।  

      रात गये फिर उसी डर के साथ सोया । जब रात में नींद में कोई डरावना सपना देख कर काँपने लगा तो माँ ने झिंझोड़ के उठाया और पूछा :- "का हुआ ....काहे डर रहा है.. ?” मैने सहमते हुये उंगली उठा उस झोपड़ी की तरफ इशारा किया, फिर माँ हँसी और बोली :- "अरे ! वो बनारसी काकी का घर है, वैद्य जी के भगवान के पास जाने के बाद जब कभी अपने अकेलेपन से ऊब जाती है तो दवा बनाने लगती है, हम सभी के लिये ……और वही तो तू भी खाता है शहद के साथ ! जिससे कि मेरे लाडले को सर्दी नहीं लगती है !” मैं भी सुन कर मुस्कुराया और माँ के पेट पर हाथ रख कर मीठी नींद सो गया । 

      सुबह जब उठा तो बगीचे से निर्भीक होकर झोपड़ी की तरफ देखा और स्कूल जाते वक्त रात की पूरी मिठास होंठों पर चिपका के मन्द-मन्द मुस्कुरा दिया काकी को देख कर ! वो अचम्भित हो कर देखने लगी और ज्यूँ ही वो मुस्कुराई .. उनके पोपले गाल और खिलखिलाती हुई सी झुर्रियाँ मुझे अब तक हर्षाती हैं । 

      डर तो मेरा उस दिन खत्म हो गया पर एक प्रश्न साथ मेरे बड़ा हुआ .. क्योँ किसी की वेदना समझे बिना, संवेदनहीन होकर मनगढ़ंत कहानियाँ बना दी जाती हैं ? 
क्यों ???? 





                                                 लघु-कथा व रेखा-चित्र : अनुराग त्रिवेदी ‘एहसास’



Sunday 15 December 2013

सफेद चादर में सो जाती है !




नारी के कोमल मन में कितनी ही बातें दब जाती है 
वो नही कह पाती कभी किसी से, बस उसे छुपाती है 

विडम्बना है, कि कैसे वो सुख-दुःख का इजहार करे !
अपनी पीड़ा छिपाने को, खुद गठरी बन सो जाती है 

शिशु रुप ले लेती है ....जब घुटने छाती से लगते ! 
बच्चे के पेट को छूते ही सजग हो माँ जाग जाती है  

अपनी परेशानी उसके लिये महत्व कभी ना रखती, 
परिवार के लिये खुद को भुलाती, खो सी जाती है

जिन पर वारा उसने सब कुछ …वो उसे भूल बैठे 
उस वक्त उसकी सम्वेदनायें शिथिल हो जाती हैं  

प्राण-हीन जीवन रह जाता और वो सहती रहती ! 
फिर अनकही वेदना ले, सफेद चादर में सो जाती है





                                                        चित्रांकन गूगल से साभार 

Friday 13 September 2013

संजू के गणपति ....

        

        सारे शहर की तरह सदर की संकरी गलियाँ भी दशहरा, दुर्गा पूजा, या फिर गणेश-उत्सव ......हर त्योहार बड़ी सज-धज और उत्साह के साथ मनाती हैं । दशहरा पर रावण के छोटे-बड़े पुतले तो दुर्गा-पूजा और गणेशोत्सव के लिए माँ दुर्गा और गणेश जी की प्रतिमाएँ, भव्य पंडालों में सजाई जाती हैं । ऐसी ही एक गली में संजू रहता था.. उस गली में ज़्यादातर गरीब परिवार ही रहते थे, इसलिये उस गली को छोड़ कर आस-पास की सारी गलियाँ जगमगाती रहती । हर बार गणेशोत्सव पर संजू भी अपनी माँ से कहता :- माँ मैं भी रखूंगा गणपति....! बप्पा को लेकर आऊंगा ..! माँ 'हम्म' बोल के रह जाती । वो जानती थी, संजू के पापा के जाने के बाद, संजू की मेहनत से ही दो वक्त की रोटी जुटती है, किसी तरह ! फिर कैसे ? पर वो उसकी बात पर कुछ नकारात्मक जवाब देकर उसे निराश भी नही करना चाहती थी ।
         
        उस बरस भी गणेशोत्सव के दिन पास आ गये ....... सब जगह गणेशोत्सव की तैयारियों की धूम मचने लगी ...चंदे वसूले जाने लगे...पंडाल-मंच सजने लगे ....मूर्तियाँ सुन्दर-सुन्दर सज कर तैयार हो गईं, स्थापित होने के लिए । संजू के मन में बरसों से संजोयी अभिलाषा फिर जोर मारने लगी ।
         
        संजू सुबह सरकारी स्कूल में एक-दो घंटे पढ़ कर पास के बाज़ार में एक सेठ की चाय की दुकान में काम करता था । अक्सर ऐसा होता कि स्कूल पास ही होने के कारण कोई मास्टर आ जाते, स्कूल के ....और वो उन्हें देख कर छुप जाया करता । एक दिन जब वो दुकान गया, स्कूल के बाद .....उसने देखा कि उसके कक्षाध्यापक ही आये हैं, जिनके साथ कोई शिक्षा अधिकारी हैं । संजू मेज के अन्दर घुस कर पिछले दरवाजे से बाहर भाग गया ।
         
        बाजार घूमते हुए, उसे एक सुन्दर सी मूर्ति दिखी गणेश जी की.....देखकर उसका मन हुआ ..... काश मेरे पास अभी पैसे होते और मै ले जा सकता गणपति बप्पा को अपने साथ ! उसने मूर्ति की कीमत पूछी .....शुरुआती बाज़ार होने के कारण, दूकानदार ने मूर्ति की चार गुनी कीमत बताई । संजू निराश हो कर फिर दुकान पँहुचा और बेमन से लग गया, काम में । सेठ ने पूछा :- "क्यूँ बे ! आज तुमाओ मन नहीं लग रओ काम में .....! का बात है ?" संजू ने उत्तर दिया :- "कुछ नहीं सेठ जी ....ऐसई ।"
सेठ :- "का ऐसई बे ! का अम्मा की तबीयत खराब है ?"
संजू :- "नही सेठ ....ऐसई .. !" तेरह साल का संजू, बहुत ही शांत भाव से जवाब दे रहा था पर सेठ का मन हो रहा था पूछने का .......कि, क्या हुआ ? उसे लग रहा था कि पड़ोस की दुकान वाले ने तो कहीं दो पैसे ज्यादा का ऑफर नही दे दिया । अक्सर लड़के काम ही छोड़ कर चले जाते हैं.... सिर्फ दो पैसे बढ़े देख कर । उसने फिर पूछना शुरु किया और अबकी संजू ने बता दिया । सेठ के मन में कुछ आया और उसने एडवांस के तौर पर उसे पाँच सौ रुपये दे दिए । खुशी-खुशी वो घर गया । तीन-चार सौ उसने पहले से बचा कर रखे थे ....माँ को बताया :- "माँ ! मैं गणपति को लेने जा रहा हूँ ।"
माँ :- "इत्ती रात को !" 
संजू :- "हाँ ...माँ ! बाजार खुला है अभी ।"
       
        जब वो बाजार पँहुचा ....वो दुकानदार दुकान समेट रहा था । उसने देखा...वो मूर्ति, उधर नहीं थी, जो उसने दिन में देखी थी । वो निराश हो कर वापस आ गया ...... उसकी आँखों में तो वही प्रतिमा घूम रही थी ।
       
        दूसरे दिन वो दुकान जाने के लिए बाजार से गुज़र रहा था । मूर्ति की दुकान के पास पँहुचा तो देखा …..दो बच्चें खड़े हैं, अपने पिता के साथ, उस प्रतिमा को हाथ में लिये, जो एक दिन पहले उसको बहुत पसंद आई थी । वो उस मूर्ति को वापस कर के और बड़ी मूर्ति लेने आये थे । वो उसे वापस रख कर दूसरी पसंद कर रहे थे । संजू वहीं आ कर खड़ा हो गया, सुनता रहा उनकी बातें ..तो उसे पता चला कि जो दाम उसे बताये थे कल दूकानदार ने, उससे आधे से कम दाम में उन्हें बेची थी वो मूर्ति उसने । वो चुपचाप खड़ा कुछ देर देखता रहा, फिर उस व्यक्ति से बोला :- "बाबू जी.. मैं ये प्रतिमा खरीदना चाहता हूँ.. जितने की ली थी..पैसे मुझसे ले लीजिये और मुझे दे दीजिये..वापस मत कीजिये !" वो व्यक्ति कुछ जवाब देता, उससे पहले ही दुकानदार ने  गुस्से से चिल्लाते हुए उसे उधर से जाने के लिए कहा । संजू आँखों में आँसू लिए, दुखी मन से दुकान पर पँहुचा । सेठ ने जब उसे देखा, फिर वो समझ गया ..कुछ बात है ! कारण पूछने पर उसने सेठ को सब बता दिया ।
       
        सेठ तुरंत संजू को लेकर उस दुकान पर पँहुचा और उस व्यक्ति से बोला :- "बाबू जी ! बच्चा.. कहना चाह रहा है.…ये कोई पहनने के कपड़े.. या फिर.. कोई खाने की वस्तु नही.. जो खरीद के बदली करके फिर उधर आप छांट रहे हैं ।" सेठ की बात सुनकर उस व्यक्ति ने दूकानदार के मना करने पर भी, वो मूर्ति ख़रीदे गए दामों पर संजू को दे दी । संजू ने मूर्ति हाथ में लेते ही कहा :- "चलिये बप्पा.. घर में माँ इतंजार कर रही ..!" और खुशी-खुशी घर की तरफ दौड़ पड़ा ।

       
        उसके जाने के बाद उस व्यक्ति ने संजू से लिए पैसे, सेठ को वापस दिए और कहा :- "उस बच्चे की सच्ची श्रद्धा के सामने इन पैसों का कोई मोल नहीं .... ये उसे वापस दे दीजियेगा... और बताईयेगा नही उसे, कि मैने वापस किये.. उसके मन को ठेस लगेगी..!"
       
        गणेश प्रतिमा को देख कर संजू की माँ आश्चर्य से उसे निहारे जा रही थी । संजू ने ईंटों का मंच बना, उसमें जैसे-तैसे पंडाल बनाया । घर में मात्र एक स्टूल था, जिस पर आरती की थाली रखता और खुद ईंट की बनाई स्टूल पर बैठता । उसकी श्रद्धा के अदृश्य पुष्प उधर मुस्कुरा रहे थे । जिन्हे उसके आस-पास वाले ही समझ रहे थे । कोई संगीत नही ..कोई रोशनी नहीं । एक बल्ब कनेक्शन की उसकी झोपड़ी थी... बार-बार उसकी नज़र बल्ब पर पड़ती । माँ समझ गई, बोली :- "क्या देख रहा है ?" संजू :- "नही ...कुछ नही !" माँ :- "अरे ...हम जल्दी ही तो सो जाते हैं.. सुबह-सुबह ही खाना बना लेंगे !" संजू :- "मतलब ?" माँ :- "मतलब यही ....! तार तेरे गन्नू की तरफ खींच ले.. लगा ले बल्ब !" वो उठा और माँ के गले में हाथ लिपटा झूल गया । माँ भी मुस्कुराई और साथ-साथ उसकी आँख भी नम हो गई । दोनों यशोदा और कृष्ण की तरह वात्सल्य भाव  में डूब गये थे ।
      
        अब संजू के घर के बाहर भी बप्पा बैठे मुस्कुरा रहे थे । उनके लिये व्यवस्थायें जुटाने में पहले अकेले ही लगा था संजू पर बप्पा के स्थापित होते ही उसकी सेना तैयार हो गई । आस-पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चे ....जो पहले अगल-बगल की गलियों की बड़ी गणेशोत्सव संस्थाओं में लगे थे ...उसके साथ आ गए । कोई पाँच साल का, कोई आठ का... कोई दस तो कोई बारह का ......लगभग पांच से बारह साल के बच्चों की फ़ौज तैयार हो गई उसकी । सब कहते ...हम भी चंदा करेंगे, सबकी तरह ! पर संजू कहता :- "नही.. सोचा था.. रखूँगा..! अब जब बप्पा अपने बलबूते पे आये.. तो आगे भी सब हो जायेगा ।" पूरे उत्साह के साथ चार दिन तक .. यही चलता रहा कि.. वो सब तैयारियों में जुटे रहते । देखते ही देखते.. उधर सारी छोटी-छोटी  व्यवस्थायें बन गई.... वो गली साफ़ की गई.. नाले वगैरह की सफाई करी गयी । उस गली में उसने अन्दर से बाहर तक केले के पत्तों की बेल लगा दी....गली को सुन्दर बनाने के लिये उसने और उसकी नन्ही संजू ब्रिगेड ने अपने सीमित प्राकृतिक संसाधनो का भरपूर इस्तेमाल किया । पर आख्रिरी के दिनों में, जब बड़ी संस्थाओं में रौनक बढ़ गयी, सारे बच्चे वापस उधर की तरफ रुख कर गये.. कोई नहीं रुकता था, संजू के पास । वो सोचता :- "आखिर मुझे ही करना है .. मैं ही करना चाहता हूँ ...तो क्यूँ किसी का इंतजार करुँ ..!" अकेले ही तैयारी करता .. आरती करता.. सफ़ाई करता..। दिन में भी दुकान से आ कर बप्पा के पास बैठ के गपशप करता । फिर उनसे कहता – आता हूँ... !
       
        रोज सेठ प्रसाद के लिये उसे कभी सौ कभी दो सौ रुपये देता । सेठ ने उस व्यक्ति के दिये मूर्ति के पैसे भी उसे किसी बहाने से दे दिये .......और जब प्रसाद लेकर वो गली में बाँटने चलता ..... उसकी फौज फिर खड़ी हो जाती.. उसी उत्साह के साथ.. जो प्रसाद के खत्म होते ही वापस..बड़ी संस्थाओं के मंच की तरफ घूम जाती । तब संजू मन ही मन सोचता :- "सिर्फ प्रसाद के लिये आते हैं...बप्पा के लिए नहीं ! पर कोई नहीं.... मैं तो हूँ उनके लिए ! कल नहीं दूँगा प्रसाद मै इन सबको ।" फिर कुछ सोचता और कहता :- "नही ...! प्रसाद नही दिया.. ये तो गलत बात होगी.. है ना ?" संजू बहुत ही आर्दश भक्ति का सूचक सा बन गया था और उसके सच्चे भाव से प्रेरित होकर शाम कि आरती में भीड़ सी लग जाती थी, आस-पड़ोस के लोगों की और यहाँ तक कि सेठ और उसके बन्धे ग्राहक भी शाम को आरती में आते ।
       
        संजू उस दिन बहुत उदास हुआ.. जब माँ ने कहा - 'कल विसर्जन है ।' रह-रह कर उसका मन रोने को होता.. बप्पा को देखता और  सोचता.. वो उदास हो जायेंगे उसे रोते देख कर ....और मुस्कुरा देता ।
       
        संजू दिन भर खुद को व्यस्त किये था कि ख्याल ना आये, बप्पा की विदाई का । आख़िरी दिन में चहल-पहल बढ़ जाती है, रोशनी और धूम-धड़ाका अपने चरम पर पँहुच जाता है और मेले का सा माहौल हो जाता है, बड़े पंडालों में । सबके कदम उन पंडालों की तरफ ही बढ़ जाते हैं । सूनी सी उस गली में.. संजू अपने बप्पा के साथ बैठा.. आते-जाते लोगों को दूर से देख रहा था.. उसे लगता लोग उसके बप्पा के दर्शन को भी आयेंगे, पर कोई ना आया । आरती करने खड़ा हुआ तो, वो और उसकी माँ बस ! कोई और नही था । आरती के बाद भी, बैठा तकता रहा, हर आते-जाते को .....। कुछ लोग गाड़ी ले गली में आते ...तो उसे लगता ये सच्चे श्रद्धालु हैं.. पक्का बप्पा से मिलने आयेंगे.. लेकिन वो तो गाड़ी पार्क करके चले जाते.. कोई ना आता ।
       
        रात भर वो आरती के दीपक की लौ को संभाल कर बैठा रहा.. उसे इंतजार था.. कोई आयेगा ! पूरी रात बिन खाये-पिये संजू ने अपना दीपक जगाये रखा । खुद भी नही सोया और दीपक भी बुझने नही दिया । सुबह उसके मित्र और पड़ोसी आये, तो उनसे बोला :- "आरती ले लो .. ! बप्पा आज अपने घर वापस चले जायेंगे.. पता नहीं ......फिर उनका इस अँधेरे में आने का मन होगा या नहीं ?"
इतना कहते ही उसके धीरज का बाँध टूट गया और फूट-फूट कर रो पड़ा वो ।
                 
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                                                          चित्रांकन व कथा : अनुराग त्रिवेदी 'एहसास'

Wednesday 14 August 2013

कहानी : मासूम सवाल

          


          हर मौसम की अपनी महत्ता होने के साथ-साथ मार भी होती है, जो सबको बर्दाश्त करनी होती है .........विशेषकर बुजुर्गों को । शीत ऋतु में खिली, नर्म सी धूप की गर्म सेंक का लालच ले, हर जीव धूप को तकता है और अवसर मिलते ही उसका भरपूर आनन्द लेता है । वहीं बुज़ुर्ग के लिये शीत ऋतु उसकी पसलियों से लेकर शरीर के हर अंग में दर्द भर देती है और उसके लिए धूप, महज आनंददायिनी ना होकर औषधि का काम भी करती है । ऐसे ही एक घने बसे मोहल्ले में, धूप .............. सुबह से थोड़ा-थोड़ा सरकती है और दोपहर के बाद, सड़क के दूसरे कोने पर जा ठहरती है । रोज एक बूढी अम्मा जो कि, सड़क के इस पार रहती है, लगातार धूप का पीछा करने के जतन में सड़क के उस पार जाने का भी प्रयास करती । आते-जाते को ताकती ....कि कोई रुक कर उसे उस पार तक पँहुचा दे, किंतु अपनी व्यस्तता में सब भागे चले जाते ।
          
         एक दिन ऐसे ही .........वो कदम आगे बढ़ाती और फिर पीछे कर लेती । तभी स्कूल से घर के लिये जाती, एक बच्ची उस बूढ़ी अम्मा को देख रुक जाती है । पहले तो समझने की कोशिश करती रही ....कि वो चाहती क्या है ? आगे बढ़ के पीछे कदम क्यूँ ले लेती है ? ऐसा सोच कर पास आई, तब उसने देखा कि आते-जाते रिक्शे और गाड़ियों के चलते वो आगे नही बढ पा रही है । वो पास जाती है और बूढ़ी अम्मा का हाथ थाम लेती है । बूढ़ी अम्मा उसे देख कर मुस्कुराती है और उसके माथे पर हाथ फेर पूछती है :- "क्या नाम है तुम्हारा ?
बच्ची :- "सुधा..!"
मासूम सी मीठी आवाज़ सुन अम्मा मुस्करा के पूछती है :- किस कक्षा में पढती हो ?" जवाब में वो बोलती है :- "पांचवीं कक्षा में ।" इतना कह, वो अम्मा को उस पार छोड़ अपने घर को निकल  जाती है ।
          
         फिर यही सिलसिला दोनों के बीच चलता रहा, दिनों-दिन तक । दूर से आती सुधा, अम्मा की देहरी पे ताकती कि अम्मा बैठी है क्या ? और उधर से अम्मा भी निहारती कि सुधा आती होगी । छुट्टियों के दिन भी सुधा बिन नागा किये अपनी सहेलियों संग आती और दादी को दूसरे कोने में छोड़ थोड़ी देर उनसे बतियाती और सहेलियों के संग वापस चली जाती ।
          
         दो अनजानों में अजीब सा एक आस का रिश्ता सा बन गया था । दोनों ही एक दूजे को दूर से ही देख, मुस्कुराती और फिर बहुत देर तक बतियातीं । बाकी लोग अपने ही कामों की दौड़-भाग में व्यस्त ..........एक वही बच्ची उस बूढी के मर्म को पढ़ पाती । कभी उनसे कहानियाँ सुनती ...और कभी सुनाती ।
          
         ऐसे ही दो महीने बीत गए । एक दिन रोज़ की तरह, सुधा दूर से देखती आ रही थी अम्मा को, लेकिन वो उसे दिखाई नहीं दे रही थी । उनके खंडहर से मकान के बाहर खड़ी देर तक सोचती रही ..........जाउँ कि नही ? हिम्मत ही नही जुटा पाई, अन्दर जाने की । दो दिन बीत गये, अम्मा उसे नहीं दिखी । दिन-दिन भर चिंता में रहती । फिर आखिरकार मन बना कर उस मकान में घुस ही गयी । सहमे-सहमे से हलके कदम आगे रखती जाती और ...... अम्मा ......अम्मा ! पुकारती जाती लेकिन बहुत अन्दर जाने तक उसे कोई नही दिखा । फिर घर के आखिरी तहखाने नुमा, एक छोटे से कमरे से उसे आवाजें सुनाई दी .......कराहने की । वो डरी-सहमी, आगे-पीछे देखती, उधर पंहुची ...तो अन्दर कमरे में जर्जर सी चारपाई में पड़ी बूढी अम्मा को कराहते देख, वो बेचैन हो उठी :- "अम्मा ! क्या हुआ ?" 
बूढी अम्मा उसे उधर देख, दर्द में भी मुस्कुरा के बोल पड़ी :- "कुछ नही रे.. बूढ़ा शरीर है.. बस वही.. !" 
सुधा की भँवे तन गयी और बोली :- "सच बोलो अम्मा .....! का हुआ ?" 
बूढ़ी अम्मा उसके हाथ पे हाथ रख बोली :- "पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे, मुझ लाचार के भाग फूटे ..... जो सामने आ गई, बस धक्का लगा और कूल्हे में अंदरूनी चोट आ गई । उठना तो दूर, हिल भी नही सकती ।" 
सुधा ने कमरे के अन्दर नज़र दौड़ाई तो उधर गिनती के कुछ सामान .........जो फैले हुए पड़े थे । उसने उनकी जरुरत के सामान, उनके पास रखे और पूछा :- "अम्मा .....! क्या तुमाई देख्र-रेख करवे के लाने कोई नही है का ?" 
अम्मा उसके चेहरे पर चिंता के भाव देख, फिर मुस्कुराई और प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरती हुई बोली :- "पगली ! तू है ना ?" 
सुधा कमउम्र में भी समझ रखती थी, चाहती थी कि जिस विषय पर सवाल पूछा जवाब वही मिले ........उसने बनावटी गुस्से में फिर पूछा :- "मैं जो पूछ रही हूँ ......वो बताओ ?" 
अम्मा ने दीवाल की तरफ सिर घुमा कर इशारा किया, उधर टंगी दो तस्वीरों की ओर ........। 
सुधा देखने लगी, दोनो तस्वीरें .....दो नौजवानों की ...दोनों फौज की वर्दी पहने हुये । 
अम्मा बोली :- "एक को बीमारी ने चपेट में ले लिया ...... दूसरे को सीमा की रक्षा करते समय शहादत मिली ।" 
सुधा :- "शहादत .....! मतलब ?" 
अम्मा दर्द की लहर को चेहरे पे नही आने दे रही थी......पर अब जब सुधा ने उनके जज़्बाती दर्द को अनजाने में छेड़ दिया तो उसके झुर्रीदार चेहरे में दर्द की लकीरें सी आ गईं पर रुंधी सी आवाज़ के कम्पन पर भरसक काबू करते हुए, अम्मा ने सहजता से बताया :- "बच्ची..! शहादत उसे कहते हैं .. जब बच्चे अपनी मातृ-भूमि के लिये हँसते-हँसते जान दे देते हैं ।" 
सुधा को बात कितनी समझ आई, वो उसका भोला चेहरा बता रहा था पर एक ठंडी आह सी भरती हुई आवाज में उसने कहा :- "अच्छा !"
          
          अम्मा की सारी जरुरत की चीजें उनके पास रख वो घर चली गई  ...........घर जा कर कई बार अम्मा के बारे में बताने का उसका मन हुआ .....पर बोली नही । जाने क्या था .........जो उसे रोक लेता था ? अपनी मासूम सी समझदारी में शायद उसके मन में ये बात थी कि बता देने से, ऐसा ना हो कि, जो मदद अभी कर पा रही है वो अम्मा की, फिर कहीं वो भी ना कर पाये ! अम्मा के बारे में ही सोचती और मन ही मन एक सवाल उसे कुरेदता कि शहादत हुई भी तो उसी अम्मा के यहाँ क्यूँ ? वो इतनी बीमार हैं और उनका कोई भी नहीं ........! क्या भगवान को ये सब नहीं दिखता
उसने अपने बाबा से पूछा :- "बाबा ! शहादत वो होती है ना, जब कोई मातृभूमि के लिये मर जाता है !" 
बाबा हल्के डाँटने की सी आवाज में बोले :- "मर जाता नही बेटा .......! शहीद होता है........ऐसा बोलते हैं । वो देश के लिये जीते और देश के लिये खुशी-खुशी जान दे देते हैं ।" 
सुधा :- "अच्छा .... और ये देश उसे क्या देता है ?" 
बाबा :- "समझा नही .....मतलब ?" 
सुधा ने सवाल को फौरन बदला :- "अच्छा ये बताईये, क्या हमारे मुहल्ले में कोई ऐसा है .......जो शहीद हुआ..?" 
बाबा :- "हाँ .. पुराने बरगद के पेड़ के सामने जो घर है.. उधर एक माता जी हैं, उनका ............।" उन्हें बीच में ही रोककर सुधा बोल पड़ी :- "अच्छा वो बूढ़ी अम्मा ! जिसे सड़क पार करनी होती है, तो कोई ठिठक के रुकता भी नही ! वही हैं क्या ?" 
बाबा :- "नही रुकता..! मतलब ?" फिर उसने जवाब दिया :- "कुछ नही..!"
          
          रात के खाने के समय, सुधा खाते-खाते अपनी थाली से खाना उठा के पीछे छिपाए एक डिब्बें में रखने लगी और फिर झूठ-मूठ ही मुँह साफ करके अपनी माँ से बोली :- "वाह .....माँ ! आज का खाना बहुत अच्छा था ।"

          देर रात सबके सोते ही उसने मौका देख खिड़की से छलाँग मारी और दबे पैर बाहर निकल गई । रात कितनी हो गयी ......उसे होश ही नही था और पहली बार शायद इतनी गहरी और सन्नाटेदार रात देख, उसके पैर उठ ही नही पा रहे थे । कुत्तों के भौंकने  की आवाजें, झिंगुर के सप्तम सुर और बीच-बीच में हवाओं से झाड़ियों के हिलने की डरावनी आवाज । सहम-सहम कर चलती जाती और डर कर पीछे देखती तो उसे अपना साया ही भूतिया लग रहा था । डरते-सहमते, आखिर वो बूढी अम्मा के दरवाज़े पर  जा खड़ी हुई । सामने खड़े बरगद के पेड़ को देख शीत की ठंडी रात में भी उसे तेज पसीना आ गया ।
          
          घर से अम्मा के कराहने की आवाज़ें आ रही थी । तभी सुधा के पैरों की आवाज सुन, बूढ़ी अम्मा पूछने लगी :- "कौन है रे... कौन है उधर !" डरी-सहमी हुई सुधा ने अम्मा की आवाज़ सुन कर तेज चलती साँसों को सँभालते हुए जवाब दिया :- "अम्मा ......मैं हूँ सुधा..! "अम्मा :- "अरे.. सुधा ! इतनी रात को .. ?" अम्मा उठने की कोशिश करने लगी तो दौड़ती हुई सुधा आई और बोली :- "अरे ! उठो नही.. खाना लाई हूँ .. चुपके से !" उसने खाने को जल्दी-जल्दी थाली में कर, उसके पास रखा और बोला :- "अम्मा ! रात नही होती तो खिला के जाती, ….पर !" अपनी बेबसी पर जिधर वो मायूस हो रही थी, वहीं अम्मा की आँखें भर आईं और उसने पास बुला के, लेटे-लेटे उसका माथा चूमा  और बोली :- "शायद यही देखने के लिये मैं अब तक जिन्दा थी....... तुझे मेरी उमर लग जाये ......जा बिटिया ...।" इतना कह कर उसकी आँखें झरने सी फूट पड़ी । सुधा ने अपने कोमल हाथों से उसके गालों पर आये आसूँओं को पोछा, फिर कहा :- "मैं अभी जाती हूँ .....सुबह आउंगी..!"
          
          टकटकी लगाकर, अम्मा उसे जाते हुए देखती रही । उसके पास, मासूम सुधा का दिया, कोमल स्पर्श और अपनत्व का एहसास था, जिसकी अनुभूतियों से उसकी आँखें बरबस ही बरसे जा रही थीं । ढेर सारे शिकवे थे, उसके मन में, लोगों के लिए ....... जो आज उस कोमल स्पर्श से मिट गये थे ।

          उधर बाहर निकल कर सुधा को भी अब उतना डर नही था । घर के बाहर उसने बस एक बार, बरगद के पेड़ को देखा ........जो भयावह आकृति लिये हुए था । आधी आँख बन्द कर उसने तेज दौड़ लगा दी, जो घर पर आकर ही रुकी । फिर धीरे से वो अपने कमरे में गयी और तकिया चादर के नीचे से हटाकर, अपनी माँ के बगल में आकर सो गई ।
          
          चिडियों की चहक और मोगरे की महक के साथ सुबह ने, सुधा की खिड़की पर आ कर दस्तक दी । खिड़की खुलते ही चेहरे पर पड़ती, हल्की मीठी धूप से ही उसे बूढ़ी अम्मा का ख्याल आया । बिन मुँह-हाथ धोये ही वो दौड़ कर बूढी अम्मा के घर गई । उनके दरवाजे पर रुकी और आवाजें देती हुई अन्दर गई ।उसने कई आवाजें दीं .....पर कोई जवाब ना आने पर, वो बैचेन हुई । सोचने लगी, आज तो कराहने की आवाजें भी नही आ रही । उसके कदमों की चाल तेज़ हो गयी और जैसे ही उसने कोठरी खोली, देखा ...... उधर खाने के बर्तन जस के तस पड़े और बूढ़ी अम्मा.... गिरी पड़ी थीं, जमीन पर .........हाथ में तस्वीर लिए हुए, उनके बेटे की । सुधा तेजी से पास आई । उस अबोध को बहुत देर लगी समझने में कि अब बूढ़ी अम्मा ने त्याग दिया है वो शरीर, जिसे पकड़ के वो हिला रही है और सहारा देना चाह रही है ।  वो रोने लगी चीख-चीख कर, पर उस खंडहर से पड़े घर की आवाजें, मोहल्ले वाले अनसुना करते रहे, हमेशा की तरह ...........।

          बहुत देर वहीं अम्मा के पास बैठी सुधा रोती रही । फिर उसे ढूंढने निकले उसके बाबा को जब उसके रोने की आवाज़ आई तो वो उधर पंहुचे और तब उनके पीछे-पीछे और भी मोहल्ले वाले आए । बाबा ने अंतिम-संस्कार का इंतजाम किया और फिर जब अंतिम संस्कार के बाद सब अम्मा के घर आये तो उधर बाहर ही खड़ी, सुबक-सुबक कर रोती सुधा के हाथ में, अम्मा के परिवार की तस्वीरें देख सभी लज्जित हो, सिर झुका के खड़े हो गये ।

                                                           
                         चित्रांकन व कथा : अनुराग त्रिवेदी ….'एहसास'   

Saturday 27 April 2013

उम्र का सफ़र ...!


पुराने दरख्त हमें सिखाते हैं, 
कैसे बुजुर्ग सवाल खूंटी में टांग आते हैं !
रहती नही फिक्र उन्हें फिर, 
नींद की तगड़ी खुराक ले, सुबह उठ जाते हैं । 
कैसे वो अपने बुजूर्ग जीते !
और हम जीते जी जिन्दगी नरक बनाते हैं । 
हैरत हुई, सुन कर मुझे !
पर सच है ऐसे ही नही वो बुजुर्ग हो जाते हैं । 
दिन मशक्कत से गुजारते हैं, 
रातों को ख्वाब फिर वो नया सा सजाते है । 
क्या देखा है तुमने उन्हे कभी ? 
घर में आते ही झुर्रियों से मुस्कुराते हैं । 
खिल पड़ते पोपले गाल उनके, 
नंदू को कंधे पर बिठा घोड़ा बन जाते हैं । 
आज के नये दौर में हमें, 
ऐसे भरे पूरे परिवार किधर दिख पाते हैं ?
घर के सदस्य घर में ही, 
सीमांकन में बँट, कट कर रह जाते है । 
एक को दूजे के लिये फुर्सत नही, 
बस एक दूजे को खरी खोटी सुनाते हैं । 
वो बूढ़ा दरख्त कहता है ! 
मनुष्य ही कलयुग को निमंत्रण दिये जाते हैं । 
खुब हुआ तो देखिये उन्हे ! 
इधर-उधर भीड़ लगा भंडारे/लंगर लगाते हैं । 
ये नेक दिल श्रीमान ऐसे हैं ! 
जो गरीब की बोटी,बेटी नोच हिसाब में चढ़वाते हैं । 
तो कहो ... ! क्या है सवाल ?
हम एक टहनी झुकाते, और न्यौता तुम्हे दिये जाते हैं । 
टांग दो सवाल वो सारे के सारे, 
जो ज़ेहन में तुम्हारे अपलक अनवरत आते है ।


Thursday 14 March 2013

सच और झूठ ...



सच और झूठ का नीति-शास्त्र,
कई अनदेखे राज़ खोल देता है । 
पटापट झूठ बोलने वाले की,
एक रोज़ पोलपट्टी खोल देता है ।

झूठ कितना सुनहरा हो मिले,
समय का जौहरी, खोटा बोल देता है । 
अंश भर की भी सत्यता रही अगर, 
फिर वो परख कर, सही मोल देता है । 

सोने की कीमत, सच को ही मिलती,   
झूठ तो लोहे के दाम जाता है ।  
चमक असल की ही असली, 
नकली तो झट मुरझा जाता है । 

                      



Friday 8 March 2013

कैसे नर/ नारी की सामानता की बात कहें ??



यदि समानता की बात कहें तो कब नर नारी के समकक्ष हो पाता है ?
नारी ही प्रधान है ! समयकाल की चुनौतियों में ही स्पष्ट हो जाता है ।
क्षणिक आलिंगन में निवृत हो, फिर करवट ले मुँह घुमाता है ! 
मादा की तरह बीज को सहेज कब अपना दायित्व निभाता है ?
नर का योग, सिर्फ परमानन्द की भूख ...!
सृजन का जिम्मा तो सिर्फ नारी के ही हिस्से आता है ।
उसका धीरज- स्नेह ही विकट परिस्थितियों में खरा उतर पाता है 
नर ... ! 
अन्धत्व में वशीकृत होकर आकर्षण में गिरता और संभल ना पाता है । 
नारी ही असल पुरुषार्थ का अर्थ समझा पाती है ...
पुरुष डग- डग भ्रमित हो, चकराता और भटक जाता है ।
कैसे कोई सामानता के परिमाप स्थापित करे ?

नारी ही तो युग- युगांतर से निर्माण का प्रथम सूत्र है
, 
हर शाश्वत कथन में यही कहा जाता है ।
नैतिक मूल्य हो या फिर जीवन दर्शन ! नर नारी के समकक्ष तो क्या ... दूर दूर तक, 
स्पष्ट नही दिख पाता है ....।

इतनी विषमताओं के बाद भी कैसे समानता की बात कहें ?
जबकि चिर काल से, समानता का ही सिद्धांत कहा जाता है ।
:अनुराग त्रिवेदी ...एहसास
Watever u do, u do it wth grace, style warmth & smile!                                                          
          **Happy Women's Day!  **